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प्राचीन भारत (रामशरण शर्मा)
1. | प्राचीन भारतीय इतिहास का महत्त्व |
2. | प्राचीन भारतीय इतिहास के आधुनिक लेखक |
3. | स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण |
4. | भौगोलिक ढाँचा |
5. | प्रस्तर युग : आदिम मानव |
6. | ताम्रपाषाण कृषक संस्कृतियाँ |
7. | हड़प्पा संस्कृतिः कांस्य युग सभ्यता |
8. | आर्यों का आगमन और ऋग्वैदिक युग |
9. | उत्तर वैदिक अवस्था: राज्य और वर्ण व्यवस्था कीओर |
10. | जैन और बौद्ध धर्म |
Table of Contents
1. प्राचीन भारतीय इतिहास का महत्त्व
- सम्राट अशोक के शिलालेख प्राकृत भाषा के अलावा खरोष्ठी और आरामाइक लिपियों में है। पश्चिमोत्तर और अफगानिस्तान में इनकी भाषा और लिपि आरामाइक और यूनानी दोनों हैं।
चक्रवर्ती राजा के संदर्भ में
- हिमालय से कन्याकुमारी तक, पूर्व में ब्रह्मपुत्र की घाटी से पश्चिम। में सिंधु -पार तक अपना राज्य फैलाने वाले राजाओं को चक्रवर्ती राजा कहा जाता था।
- सम्राट अशोक ने अपना साम्राज्य सुदूर दक्षिणांचल को छोड़कर सारे देश में फैलाया तथा समुद्रगुप्त की विजय पताका गंगा की घाटी से। तमिल देश के छोर तक पहुँची इस प्रकार दोनों चक्रवर्ती राजा कहलाते थे
आर्यों के सांस्कृतिक उपादान के संदर्भ में
- आर्य सांस्कृतिक उपादान उत्तर के वैदिक और संस्कृतमूलक संस्कृति से आए हैं।
- प्राक् आर्य जातीय उपादान दक्षिण की द्रविड़ और तमिल संस्कृति के अंग हैं।
- प्राचीन भारत अनेकानेक मानव-प्रजातियों का संगम रहा है। इनमें आर्य→ यूनानी → शक →हूण →तुर्क आदि अनेक प्रजातियाँ शामिल थीं। ये सभी समुदाय और इनके सारे सांस्कृतिक वैशिष्ट्य आपस में इस तरह नीरक्षीरवत् हो गए कि आज उनमें से किसी को भी उनके मूल रूप से साफ-साफ पहचा नहीं सकते हैं।
2. प्राचीन भारतीय इतिहास के आधुनिक लेखक
अंग्रेजों तथा क्रिश्चियन मिशनरियों द्वारा भारतीय इतिहास तथा धर्म ग्रंथों के अध्ययन में रुचि लेने के कारणों के संदर्भ में-
- 1857 के विद्रोह के पश्चात् अंग्रेजों ने यह महसूस किया कि उन्हें भारत पर अपना शासन मजबूत करने के लिये यहाँ के लोगों के रीति-रिवाजों और सामाजिक व्यवस्थाओं का अध्ययन करना होगा।
- क्रिश्चियन मिशनरियों ने भारतीय लोगों का धर्म परिवर्तन करने के लिये उनके धर्म की दुर्बलताओं को जानना आवश्यक समझा, ताकि वे धर्म परिवर्तन करा सकें और उनके द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य को मजबूत बनाया जा सके।
भारतीय इतिहास के अध्ययन के संदर्भ में
- भारतीय विद्या के अध्ययन को सबसे अधिक बढ़ावा जर्मनी के विद्वान एफ. मैक्स मूलर ने दिया। उन्होंने ‘सेक्रेड बुक्स ऑफ द ईस्ट’ को कुल मिलाकर पचास खंडों में प्रकाशित करवाया।
- अंग्रेजों द्वारा भारतीय इतिहास के अध्ययन के फलस्वरूप भारत के लोगों को स्वेच्छाचारी शासन का आदी तथा परलौकिक समस्याओं में डूबे रहने वाले और जाति प्रथा व वर्ण व्यवस्था के सामाजिक कुचक्र में फँसा हुआ बताया है।
- मनुस्मृति’ को सबसे प्राचीन और प्रामाणिक माना जाता है। सबसे पहले 1776 में इसका अंग्रेजी भाषा में अनुवाद हुआ था।
भारतीय इतिहास के अंग्रेजी लेखकों के संदर्भ में
- 1785 ई. में प्रसिद्ध धार्मिक ग्रन्थ भगवद्गीता का अंग्रेजी अनुवाद विल्किन्स ने किया था।
- ईस्ट इंडिया कंपनी के सर विलियम जोन्स ने 1784 में कलकत्ता में एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल नामक शोध संस्थान की स्थापना की थी।
- सर विलियम जोन्स ने 1789 मे अभिज्ञानशाकुंतलम् नामक नाटक का अंग्रेजी में अनुवाद किया था।
- विसेन्ट आर्थर स्मिथ की पुस्तक ‘अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ में उन्होंने प्राचीन भारत का इतिहास 1904 में तैयार किया था।
भारतीय विद्वानों द्वारा भारतीय इतिहास के अध्ययन करने के कारणों के संदर्भ मे
- भारतीय विद्वानों ने, विशेषकर वे जो पाश्चात्य शिक्षा पाए हुए थे, अंग्रेजों द्वारा भारतीय इतिहास को तोड़-मरोड़ कर भारत के अतीत की। छवि धूमिल किये जाने से क्रोधित थे। उन्होंने इंग्लैंड के फलते-फूलते औपनिवेशिक शासन के विरोध में भारतीय इतिहास का पुनर्निर्माण करने के लिये अध्ययन किया।।
- भारतीय विद्वान समाज को केवल सुधारना ही नहीं चाहते थे बल्कि भारत के प्राचीन इतिहास का पुनर्निर्माण इस प्रकार करना चाहते थे। कि उससे समाज को सुधारने में मदद मिले और यह कार्य भारत के लोगों को भारत के इतिहास का ज्ञान करवाकर ही संभव था।
- भारतीय विद्वानों ने भारत के लोगों को भारत के स्वर्णिम इतिहास के बारे में अवगत करवाकर स्वराज प्राप्त करने हेतु प्रेरित किया।
लेखक | पुस्तकें |
ए. एल. बॉशम | ए हिस्ट्री ऑफ एन्शिएंट इंडिया |
डी.डी. कोसंबी | वंडर दैट वाज इंडिया |
राजेन्द्र लाल मित्र | एन. इन्ट्रोडक्शन टू द स्टडी ऑफ इंडियन हिस्ट्री |
के. ए. नीलकंठ शास्त्री | इंडो-आर्यन्स |
भारतीय इतिहास लेखकों के संदर्भ में
- महाराष्ट्र के रामकृष्ण गोपाल भंडारकर और विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े समर्पित विद्वान थे। उन्होंने देश के सामाजिक और राजनीतिक इतिहास का पुनर्निर्माण किया। आर.जी. भंडारकर ने सातवाहनों के दक्कन के इतिहास का और वैष्णव संप्रदायों के इतिहास का पुनर्निर्माण किया। उल्लेखनीय है कि दोनों महान समाज सुधारक थे और अपने शोधों से विधवा-विवाह का समर्थन किया और जाति-प्रथा एवं बाल विवाह जैसे कुप्रथा का खंडन किया था।
- हेमचन्द्र राय चौधरी ने महाभारत काल से (ईसा पूर्व दसवीं सदी) लेकर गुप्त साम्राज्य के अंत तक प्राचीन भारत के इतिहास का पुनर्निर्माण किया।
- वी.ए. स्मिथ ने अपने इतिहास लेखन में सिकन्दर के आक्रमण के बारे में वर्णन किया है तथा इतिहासकार के.पी. जायसवाल ने सिद्ध किया कि प्राचीन काल में यहाँ गणराज्यों का अस्तित्व था; जो अपना शासन स्वयं चलाते थे।
भारतीय इतिहास के लेखकों के संदर्भ में
- ए.एस. अल्तेकर और के.पी. जायसवाल जैसे कुछ विद्वानों ने देश को शकों और कुषाणों के शासन से मुक्त कराने में भारतीय राजवंशों की भूमिका का वर्णन किया है। इतिहासविद् के.ए. नीलकंठ शास्त्री ने ‘ए हिस्ट्री ऑफ साउथ इंडिया’ का लेखन किया है।
- पांडुरंग वामन काणे संस्कृत के प्रकांड पंडित और समाज सुधारक हुए। उनका विशाल कीर्तिस्तंभ ‘हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र’ जो पाँच खंडों में प्रकाशित हुआ है, सामाजिक नियमों और आचारों का विश्वकोश है। अतः कथन (a) सत्य है।
- देवदत्त रामकृष्ण भंडारकर ने भारत के राजनीतिक इतिहास का गंभीर अध्ययन किया है। उन्होंने अशोक पर तथा प्राचीन भारत की राजनैतिक संस्थाओं पर कई पुस्तकों का लेखन किया है।
- डी.डी. कोसंबी ने भारतीय इतिहास को नया रास्ता दिखलाया। वे अपना इतिहास विवेचन कार्ल मार्क्स के लेखों के अनुसार करते थे। उन्होंने प्राचीन भारतीय समाज के आर्थिक और सांस्कृतिक इतिहास को उत्पादन की शक्तियों और संबंधों के विकास में अभिन्न अंग के रूप में प्रस्तुत किया।
3. स्रोतों के प्रकार और इतिहास का निर्माण
दक्षिण भारत और पूर्वी भारत के भौतिक अवशेषों के संदर्भ में
- दक्षिण भारत में पत्थरों से मंदिर बनाए जाते थे। इनके बचे हुए अवशेष उस युग का स्मरण कराते हैं, जब देश के दक्षिणी भाग में भारी संख्या में इनका निर्माण हुआ था।
- पूर्वी भारत में ईंटों के विहारों का निर्माण होता था।
- उल्लेखनीय है कि अधिकांश भौतिक अवशेषों जो कि टीलों के नीचे दबे हुए मिले हैं, इन टीलों में एकल-संस्कृति, मुख्य-संस्कृति और बहु-संस्कृति मिलती है।
- दक्षिण भारत के कुछ लोग मृत व्यक्ति के शव के साथ औजार, हथियार, मिट्टी के बर्तन आदि चीजें भी कब्र में गाड़ते थे और इसके ऊपर एक घेरे में बड़े-बड़े पत्थर खड़े कर दिये जाते थे। ऐसे स्मारकों को महापाषाण (मेगालिथ) कहते हैं।
पुरातात्त्विक अवशेषों के अध्ययन के संदर्भ में
- प्राचीन भारत में कागज की मुद्रा का प्रचलन नहीं था, परन्तु धातु मुद्रा (धातु के सिक्कों) का चलन था। पुराने सिक्के तांबे, चांदी, सोने और सीसे के बनते थे।
- प्राचीन काल के लोगों के भौतिक जीवन के बारे में जानकारी जिस स्रोत से मिलती है उसे पुरातत्त्व/आर्किओलॉजी कहते है।
- रेडियो कार्बन काल निर्धारण विधि में, जब तक कोई वस्तु जीवित रहती है तो C14 के क्षय की प्रक्रिया के साथ हवा और भोजन की खुराक से उस वस्तु में C14 का समन्वय भी होता रहता है, परन्तु जब वस्तु निष्प्राण हो जाती है तब उसमें विद्यमान C14 के क्षय की प्रक्रिया समान गति से जारी रहती है लेकिन हवा और भोजन से C14 लेना बंद कर देती है। किसी प्राचीन वस्तु में विद्यमान C14 में आई कमी की माप कर उसके समय का निर्धारण किया जा जाता है।
- अशोक के अभिलेख राज्यादेश के रूप में जारी किये जाते थे। अधिकांश अभिलेख प्राकृत भाषा तथा ब्राह्मी लिपि में है जबकि अफगान से प्राप्त अभिलेख आरामाइक तथा ग्रीक दोनों लिपियों में हैं।
- अभिलेख अध्ययन को पुरालेख शास्त्र (एपिग्राफी) कहते हैं।
- अभिलेख और पुराने दस्तावेजों की प्राचीन तिथि के अध्ययन को पुरालिपि शास्त्र (पेलिओग्राफी) कहते हैं।
अभिलेखों के प्रकार के संदर्भ में
- अभिलेखों को अनेक कोटियों में बाँटा गया है। सम्राट अशोक के अभिलेख राज्यादेशों की कोटि में आते हैं। उनके अभिलेखों में अधिकारियों और जनता के लिये सामाजिक, धार्मिक तथा प्रशासनिक राज्यादेशों और निर्णयों की सूचनाएँ रहती थीं।
- अभिलेखों की दूसरी कोटि में आनुष्ठानिक अभिलेख है; जिन्हें बौद्ध, जैन, वैष्णव तथा शैव आदि संप्रदायों के अनुयायियों ने भक्तिभाव से स्थापित स्तम्भों, प्रस्तरफलकों, मंदिरों और प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण करवाया है।
- अभिलेखों की तीसरी कोटि में वे प्रशस्तियाँ हैं, जिनमें राजाओं और विजेताओं के गुणों और कीर्तियों का वर्णन है, परन्तु उनकी पराजयों और कमजोरियों का कोई वर्णन नहीं मिलता। समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख इसी कोटि में आता है
- अशोक के अभिलेखों को पढ़ने में सर्वप्रथम सफलता 1837 में जेम्स प्रिंसेप को मिली थी, वे उस समय ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में थे।
भारतीय इतिहास के साहित्यिक स्रोतों के संदर्भ में
- प्राचीन भारत में पाण्डुलिपियाँ भोजपत्रों और ताड़पत्रों पर लिखी मिलती हैं, परन्तु मध्य एशिया में जहाँ भारत से प्राकृत भाषा फैल गई। थी, ये पाण्डुलिपियाँ मेषचर्म तथा काष्ठफलकों पर लिखी गई है।
- वैदिक मूलग्रंथ का अर्थ समझ में आए इसके लिये वेदांगों अर्थात् वेद के अंगभूत शास्त्रों का अध्ययन करना आवश्यक था. इसलिये इनकी रचना हुई थी।
- ये वेदांग हैं- शिक्षा (उच्चारण-विधि) कल्प (कर्मकांड), व्याकरण,निरुक्त (भाषा विज्ञान), छन्द और ज्योतिष ।
- ‘व्याकरण’ की रचना पाणिनि ने 400 ई.पू. के आस-पास की थी। व्याकरण के नियमों का उदाहरण देने के क्रम में पाणिनि ने अपने समय के समाज, अर्थव्यवस्था और संस्कृति पर अमूल्य प्रकाश डाला है।
- वैदिक साहित्य का सही क्रम इस प्रकार है- वैदिक संहिताएँ > ब्राह्मण > आरण्यक > उपनिषद्
भारतीय इतिहास के साहित्यिक स्रोत ‘सूत्र’ के संदर्भ में
- सूत्र में साहित्य गद्य में नियमपूर्वक लिखे जाते थे। संक्षिप्त होने के कारण ये नियम सूत्र कहलाते हैं।
- शुल्व सूत्र में यज्ञवेदी के निर्माण के लिये विविध प्रकार के मापों का विधान है। ज्यामिति और गणित का अध्ययन यहीं से आरम्भ हुआ है।
- उल्लेखनीय है कि ऐसे सूत्र जिनमें विधि और नियमों का प्रतिपादन किया जाता है, कल्पसूत्र कहलाते हैं। कल्पसूत्रों के तीन भाग हैं- श्रोतसूत्र, गृहयसूत्र और धर्मसूत्र ।
- जातक कथा एक प्रकार की लोक कथा है। बुद्ध के पूर्वजन्मों की कथाओं को जातक कहा जाता है। ये जातक कथा ईसा पूर्व पाँचवीं सदी से दूसरी सदी ई. सन् तक की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर प्रकाश डालती है। प्रसंगवश ये कथाएँ बुद्धकालीन राजनीतिक घटनाओं की जानकारी देती हैं।
- कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’ एक राजनीतिक ग्रंथ है। यह पंद्रह अधिकरणों में विभक्त है, जिसमें दूसरा और तीसरा अधिक पुराने हैं। इसमें मौर्यकालीन समाज और अर्थतंत्र की भी महत्वपूर्ण सामग्री मिलती है।
- कालिदास ने अनेक काव्य और नाटक लिखे हैं, जिनमें सबसे प्रसिद्ध ‘है ‘अभिज्ञानशाकुंतलम’। इन महान सर्जनात्मक कृतियों में गुप्तकालीन ‘उत्तरी और मध्य भारत के सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन की झलक मिलती है।
संगम साहित्य के संदर्भ में
- संगम साहित्य प्राचीनतम तमिल ग्रंथ है। राजाओं द्वारा संरक्षित विद्या केन्द्रों में एकत्र होकर कवियों और भाटों ने तीन-चार सदियों में इस साहित्य का सृजन किया था। ऐसी साहित्यिक सभा को संगम कहते थे। यह आरंभिक सदियों में प्रायद्वीपीय तमिलनाडु के लोगों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन के अध्ययन के लिये संगम साहित्य एकमात्र स्रोत है।
- संगम साहित्य मुक्तकों और प्रबन्ध काव्यों की रचना बहुत सारे कवियों ने की है।
भारतीय इतिहास के विदेशी विवरणों के संदर्भ में
- मेगस्थनीज सेल्यूकस निकेटर का राजदूत था। वह चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में चौदह वर्षों तक रहा। उसके द्वारा रचित ‘इण्डिका’ में मौर्ययुगीन समाज एवं संस्कृति का विवरण मिलता है।
- यूनानी विवरणों में चन्द्रगुप्त मौर्य और सान्द्रोकोत्तस जिनके राज्यारोहण की तिथि 322 ई.पू. निर्धारित की गई है, एक ही व्यक्ति था।
- ह्वेनसांग सातवीं सदी में हर्ष के शासनकाल में भारत आया था। उल्लेखनीय है कि वह भारत में 16 वर्षों तक रहा। 6 वर्ष तक उसने नालन्दा विश्वविद्यालय में अध्ययन किया।
- फाहियान और हवेनसांग दोनों बौद्ध थे और बौद्ध तीर्थों का दर्शन करने तथा बौद्ध धर्म का अध्ययन करने भारत आए थे।
लेखक | रचनाएँ |
मेगस्थनीज | इंडिका |
टॉलेमी | ज्योग्राफी |
प्लिनी | नेचुरल हिस्टोरिका |
ह्वेनसांग | सी–यू-की |
बाणभट्ट | हर्ष चरित |
विल्हण | विक्रमांकदेवचरित |
अतुल | मूषिक वंश |
संध्याकार नंदी | रामचरित |
- कल्हण ने ‘राजतरंगिणी’ की रचना बारहवीं शताब्दी में की थी। इसमें कश्मीर के राजाओं के चरितों का संग्रह है।
- उल्लेखनीय है कि बाणभट्ट के हर्ष चरित में राजा हर्षवर्धन के आरम्भिक जीवन का वृत्तांत है। यह गद्य काव्य है। विल्हण द्वारा रचित विक्रमांकदेव चरित में कल्याण के चालुक्य राजा विक्रमादित्य पंचम का वर्णन किया। गया है। अतुल की रचना मूषिक वंश में मूषिक राजवंश का वृत्तांत है। जिसका शासन उत्तरी केरल में था। संध्याकर नंदी के रामचरित में कैवर्त्त जाति के किसानों और पाल वंश के राजा रामपाल के बीच की लड़ाई का वर्णन किया गया है।
संगम साहित्य के संदर्भ में
- संगम साहित्य के पद्म 30,000 पंक्तियों में मिलते हैं, जो एट्टत्तोके (आठ) संकलनों में विभक्त हैं। उल्लेखनीय है कि. पद्य सौ-सौ के समूहों में संगृहीत हैं, जैसे पुरनानूरू।
- संगम साहित्य के दो मुख्य समूह हैं: पटिनेडिकल पट्टिनेनकील कणक्कु (अठारह निम्न संग्रह) और पत्त पाट्ट (दस गीत) पहला समूह दूसरे से पुराना माना जाता है। इसलिये इसे लौकिक साहित्य के लिये। महत्त्वपूर्ण समझा जाता है।
- चौदहवीं सदीं में फिरोजशाह तुगलक ने अशोक के दो स्तंभलेखों में एक मेरठ से और दूसरा हरियाणा के टोपरा नामक स्थान से दिल्ली मंगवाया था।
4. भौगोलिक ढाँचा
मानसूनी पवनों के संदर्भ में
- भारत के लोगों को ईसा की पहली सदी के आसपास मानसून पवनों की दिशा मालूम हो गई थी।
- भारत के लोगों को मानसून के ज्ञान से पश्चिम एशिया भूमध्य सागरीय क्षेत्र और दक्षिण-पूर्व एशिया से व्यापार और सांस्कृतिक संपर्क स्थापित करने में सहायता मिली थी।
प्राचीन भारत में नदियों के बीच स्थित राज्यों के संदर्भ में
- कर्नाटक राज्य की सीमा उत्तर में भीमा नदी तथा दक्षिण में तुंगभद्रा नदी बनाती है।
- बादामी के चालुक्यों और राष्ट्रकूटों की सीमा तुंगभद्रा के उत्तर में पड़ती थी तथा इन राज्यों को तुंगभद्रा के दक्षिण में राज्य प्रसार करने में कठिनाई का सामना करना पड़ा, तो दूसरी ओर पल्लवों और चोलों को भी इस नदी (तुंगभद्रा) के उत्तर में राज्य प्रसार में कठिनाई हुई थी। भारतीय महाद्वीप के पूर्वी भाग में प्राचीन कलिंग राज्य की उत्तरी सीमा महानदी तक और दक्षिणी सीमा गोदावरी नदी थी।
प्राचीन काल में व्यापार और संचार मार्गों के संदर्भ में
- प्राचीन काल में व्यापार और संचार सड़क मार्ग से नहीं होता था, क्योंकि उस काल में सड़कें बनाना कठिन था।
- प्राचीन काल में नदियाँ वाणिज्य और संचार की धमनियाँ थी, इसलिये इस काल में मनुष्यों और वस्तुओं का आवागमन नावों से होता था। अतः नदी मार्गों का सैनिक और वाणिज्य संचार में मुख्य रूप से प्रयोग किया जाता था।
- उल्लेखनीय है कि अशोक द्वारा स्थापित प्रस्तर स्तंभ नावों द्वारा ही देश के दूर-दूर स्थानों पर पहुँचाए गए। संचार साधन के रूप में नदियों की यह भूमिका ईस्ट इंडिया कंपनी के दिनों तक कायम रही।
प्राचीन भारत में विभिन्न संस्कृतियों के उद्भव के स्थान के संदर्भ में
- हड़प्पा संस्कृति का उद्भव और विकास सिंधु नदी की घाटी में हुआ था।
- वैदिक संस्कृति का उद्भव पश्चिमोत्तर प्रदेश और पंजाब में हुआ, जबकि विकास पश्चिमी गंगा घाटी में।
- उत्तरवैदिक संस्कृति जो मुख्यतः लोहे के प्रयोग पर आश्रित थी, मध्य गंगा घाटी में फली फूली।
- प्राचीन काल में आरिकामेडु, महाबलिपुरम और कावेरीपट्टनम् के बंदरगाह कोरोमंडल तट पर अवस्थित थे।
- भारत के प्राचीनतम् पंचमावर्ड (आहत) सिक्के मुख्यत: चांदी के बने होते थे। उल्लेखनीय है कि उप्पा मारकर बनाए जाने के कारण भारतीय भाषाओं में इन्हें आहत मुद्रा कहते हैं। इन सिक्कों पर पेड़, मछली, साँड़, हाथी, अर्द्ध-चन्द्र आदि आकृतियाँ बनी होती थीं।
धातु | प्राप्ति स्थान |
सोना | कर्नाटक |
सीसा | आंध्र प्रदेश |
तांबा | राजस्थान |
टिन | अफगानिस्तान |
5. प्रस्तर युग आदिम मानव
आरम्भिक पुरापाषाण युग के संदर्भ में
- आरम्भिक पुरापाषाण युग का मानव पत्थर के अनगढ़ और अपरिष्कृत औजारों का इस्तेमाल कर शिकार और खाद्य-संग्रह पर जीवित रहता था।
- इस युग के औजारों में कुल्हाड़ी (हैंड-एक्स), विदारणी (क्लीवर) और खंडक (चॉपर) का उपयोग होता था।
- इस युग के स्थल पाकिस्तान में स्थित पंजाब की सोअन/सोहन नदी की घाटी में पाए जाते हैं। इसके अलावा कई अन्य स्थल कश्मीर और थार मरुभूमि में मिले हैं।
- उल्लेखनीय है कि राजस्थान का दिवाना क्षेत्र, बेलन और नर्मदा की घाटियों में तथा मध्य प्रदेश के भीमबेटका में इनके निवास स्थल के अवशेष मिले हैं।
पाषाण युग के संदर्भ में
- ऊपरी पुरापाषाण युग में आर्द्रता कम हो गई थी। इस युग में आधुनिक प्रारूप के मानव (होमोरोपिएस) का उदय हुआ था।
- उल्लेखनीय है कि इस युग नए उद्योग की स्थापना हुई श्री तथा भारत में फलकों और तक्षणियों (कोड्स और ब्यूटिस) का इस्तेमाल होने लगा था।
- मध्य-पुरापाषाण युग में मुख्य उद्योग पत्थर की पपड़ी से बनी वस्तुओं का था। इनके मुख्य औजार फलक, बंधनी, छेनी और खुरचनी थे, जो कि पपड़ियों से बने होते थे।
मध्यपाषाण काल के संदर्भ में
- मध्यपाषाण स्थल राजस्थान, दक्षिणी उत्तर प्रदेश, मध्य और पूर्वी भारत में पाए जाते हैं तथा दक्षिण में इसका फैलाव कृष्णा नदी के दक्षिण तक है। अतः कथन (c) असत्य है। जबकि, अन्य तीनों कथन सत्य हैं।
- इस युग में सूक्ष्म पाषण (माईक्रोलिथ्स) औजारों का प्रयोग होता था
- मध्यपाषाण युग के लोग शिकार करके, मछली पकड़कर खाद्य वस्तुओं का संग्रह करते थे। वे लोग आगे चलकर पशुपालन भी करने लगे थे।
- राजस्थान के बागोर तथा मध्य प्रदेश के आदमगढ़ में पशुपालन के प्राचीन साक्ष्य मिले हैं।
पुरापाषाण और मध्यपाषाण युग के कलाकृतियों के संदर्भ में
- इस काल में अनाज पर जीने वाले पचिंग पक्षियों के चित्र नहीं पाए जाते थे। बल्कि उन पशु और पक्षियों के चित्र पाए जाते थे, जिनका शिकार करके वे अपना जीवन निर्वाह करते थे।
- इस युग के लोग चित्र बनाते थे। मध्य प्रदेश की भीमबेटका गुफा इसका अद्भुत उदाहरण है। यह दक्षिण में विंध्यपर्वत पर अवस्थित है। इसके 10 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में 500 भी ज्यादा चित्र बनाए गए हैं।
- नवपाषाण काल खाद्य उत्पादक काल था। सर्वप्रथम मनुष्य ने में मेहरगढ़ से चावल, गेहूँ तथा जौ के अवशेष मिले हैं। यहाँ के निवासी इसी काल में कृषि करना शुरू किया था। पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत कृषि करने में उन्नत थे।
नवपाषाण काल के संदर्भ में
- इस काल के लोग पॉलिशदार पत्थर के औजारों और हथियारों का प्रयोग करते थे। वे खास तौर पर पत्थर की कुल्हाड़ियों का इस्तेमाल किया करते थे।
- कश्मीर में नवपाषाण संस्कृति के गर्तावास (गड्ढा-घर) के उदाहरण मिलते हैं। कश्मीर के बुर्जहोम में इसके अवशेष मिले हैं।
- इस काल में कुंभकारी शुरू हो गयी थी। आरंभ में हाथ से बनाए गए। मृदभांड मिलते थे तथा बाद में मिट्टी के बर्तन चाक पर बनने लगे। इन बरतनों में पॉलिशदार काला मृदभांड तथा धूसर मृदभाण्ड शामिल हैं।
- कश्मीर स्थित बुर्जहोम से प्राप्त कब्रों में पालतू कुत्तों को मालिक के साथ दफनाने के अवशेष मिले हैं। उल्लेखनीय है कि गुफकराल. जिसका अर्थ होता है कुलाल अर्थात कुम्हार की गुहा। यहाँ के लोग कृषि और पशुपालन दोनों कार्य करते थे।
- उल्लेखनीय है कि नवपाषाण काल में भारी तकनीकी प्रगति हुई, क्योंकि इसी अवधि में लोगों ने खेती, बुनाई, कुंभकारी भवन निर्माण, पशुपालन, लेखन आदि का कौशल विकसित किया।
स्थल | अवशेष |
मेहरगढ़ | कृषि |
पिक्लीहल | राख का ढेर |
चिरांद | हड्डी के हथियार |
बुर्जहोम | गर्तावास |
- मेहरगढ़ में बसने वाले नवपाषाण युग के लोग अधिक उन्नत थे। वे गेहूँ, जौ और रुई उपजाते थे तथा कच्ची ईंटों के घरों में रहते थे। उल्लेखनीय है कि इस काल में लोग मिट्टी और सरकंडों के बने गोलाकार या आयताकार घरों में भी रहते थे।
- नवपाषाण युग के लोग जो दक्षिण भारत में गोदावरी नदी के दक्षिण में ग्रेनाइट की पहाड़ियों के ऊपर बसे थे; वे फिगरिन्स (आग में पकी मिट्टी की मूर्तिकाएँ) में गाय, बैल, भेड़ और बकरी की मूर्तिकाएँ बनाते थे।
- प्रागैतिहासिक गुफा शैलचित्र का उदाहरण मध्य प्रदेश के भोपाल के पास भीमबेटका में मिले हैं।
6. ताम्रपाषाण कृषक संस्कृतियाँ
ताम्रपाषाण काल के संदर्भ में
- ताम्रपाषाण काल के लोग मुख्यत: ग्रामीण समुदाय बना कर रहते थे और देश के ऐसे विशाल भागों में फैले थे जहाँ पहाड़ी जमीन और नदियाँ थीं।
- मध्य और पश्चिमी भारत की मालवा ताम्रपाषाण संस्कृति की एक विलक्षणता है मालवा मृदभांड, जो ताम्रपाषाण मृदभांड में उत्कृष्टतम्। माना गया है,
- अहार और गिलुंद दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में स्थित ताम्रपाषाण काल के महत्त्वपूर्ण स्थल हैं।
- ताम्रपाषाण काल में सर्वप्रथम तांबे से औजार बनाने की शुरुआत हुई थी। इस काल में पत्थर एवं औजारों का साथ-साथ प्रयोग किया गया था।
- इस काल के लोग गेहूँ, चावल के अलावा बाजरे की खेती भी करते थे।
- उल्लेखनीय है कि वे लोग मसूर, उड़द और मूँग आदि सहित कई प्रकार के दलहन और मटर पैदा करते थे।
- अहार का प्राचीन नाम तांबवती अर्थात् तांबावाली है। अहार के लोगों को तांबा पास में मिलने के कारण धातुकर्म की जानकारी थी।
- जोरवे संस्कृति ग्रामीण थी। जोरवे संस्कृति मुख्य रूप से पश्चिमी महाराष्ट्र में पाई जाती थी। इस संस्कृति के निम्न पुरास्थल हैं- अहमदनगर जिले में जोरवे, नेवासा और दैमाबाद, पुणे जिले में चंदौली, सोनगाँव और इनामगाँव, प्रकाश और नासिक।
- जोरवे संस्कृति दैमाबाद और इनामगाँव में नगरीकरण के स्तर तक पहुँच गई थी।
- ताम्रपाषाण काल के लोग चाक पर बने काले व लाल मृदभांड का प्रयोग और चित्रित मृदभाण्डों का भी प्रयोग करते थे।
- दक्कन की काली मिट्टी में कपास की पैदावार की जाती थी।
- ताम्रपाषाण युग के लोग प्रायः पक्की ईंटों से परिचित नहीं थे। ये अपना घर कच्ची ईंटों से बनाते थे, परन्तु अधिकतर मकान गीली मिट्टी थोप कर बनाते थे। परन्तु अहाड़ के लोग पत्थर के बने घरों में रहते थे।
- महाराष्ट्र में कपास, सन और सेमल की रुई से बने धागे भी मिले हैं। इससे सिद्ध होता है कि वे लोग वस्त्र-निर्माण से सुपरिचित थे।
- इनामगाँव ताम्रपाषाण युग की एक बड़ी बस्ती थी। इसमें सौ से भी अधिक घर और कई कब्रें पाई गई हैं। यह बस्ती किलाबन्द और खाई। से घिरी हुई थी।
- ताम्रपाषाण काल में महाराष्ट्र के लोग मृतक को कलश में रखकर अपने घर में फर्श के अंदर उत्तर-दक्षिण स्थिति में दफनाते थे।
- इस काल में कब्र में मृत्तक के साथ मिट्टी की इंडिया और तांबे की कुछ वस्तुएँ भी रखी जाती थीं। उन लोगों का मानना था कि ये वस्तुएँ परलोक में मृतक के इस्तेमाल के लिये होती थीं।
- ताम्रपाषाण काल में मातृ-देवी की पूजा की जाती थी. इस काल की मिट्टी की स्त्री-मूर्तियाँ बड़ी संख्या में पाई गई हैं।
- इस काल में वृषभ (साँड़) को धार्मिक पशु माना जाता था। मालवा और राजस्थान में मिली रूढ़ शैली में बनी मिट्टी की वृषभ मूर्तिकाओं से यह साबित होता है कि वृषभ (साँड़) धार्मिक पंथ का प्रतीक था।
- इनामगाँव में मातृ-देवी की प्रतिमा मिली है जो पश्चिमी एशिया में पाई जाने वाली ऐसी प्रतिमाओं से मिलती है।
स्थल | शवाधान विधियाँ |
पूर्वी भारत | आशिक शवाधान |
पश्चिमी भारत | संपूर्ण शवाधान |
दक्षिणी भारत | पूरब-पश्चिम दिशा |
दक्षिणी भारत | उत्तर-दक्षिण दिशा |
ताम्रपाषाण संस्कृति के संदर्भ में
- ताम्रपाषाण काल में बस्ती के ढाँचे और शव-संस्कार विधि दोनों से पता चलता है कि ताम्रपाषाण समाज में असमानता आरंभ हो चुकी थी।
- उल्लेखनीय है कि पश्चिमी महाराष्ट की चंदौली और नेवासा बस्तियों में पाया जाता है कि कुछ बच्चों के गलों में तांबे के मनकों का हार पहना कर दफनाया गया है, जबकि अन्य बच्चों की कब्रों में सामान के तौर पर कुछ बरतन मात्र हैं।
- इस काल में सरदार और उसके नातेदार आयताकार मकानों में बस्ती के केन्द्र स्थल में रहते थे।
- उल्लेखनीय है कि इनामगाँव में शिल्पी या पंसारी लोग पश्चिमी छोर पर रहते थे। आयताकार मकानों में सरदार वर्ग तथा गोल झोपड़ियों में सामान्य वर्ग के लोग रहते थे।
- मालवा संस्कृति नवदाटोली, एरण और नगदा में पाई जाती थी। यह संस्कृति हड़प्पा संस्कृति से पृथक मानी जाती है।
- जोरवे संस्कृति जो अंशतः विदर्भ और कोंकण को छोड़कर सारे महाराष्ट्र में फैली हुई थी। यह देश के दक्षिणी और पूर्वी भागों में ताम्रपाषाण बस्तियाँ हड़प्पा संस्कृति से स्वतंत्र रही थी।
- कायथा संस्कृति जो हड़प्पा संस्कृति की कनिष्ठ समकालीन है, इसके मृदभांड में कुछ प्राक् हड़प्पीय लक्षण है और साथ ही इस पर हड़प्पाई प्रभाव भी दिखाई देता है।
- गणेश्वर संस्कृति को उसके सूक्ष्म पाषाण वस्तुओं तथा अन्य पाषाण उपकरणों को देखते हुए प्राक हड़प्पाई ताम्रपाषाण संस्कृति कहा जा सकता है।
- ताम्रपाषाण अवस्था में अनाज, भवन, मृदभांड आदि में क्षेत्रीय अंतर भी दिखाई देते हैं। पूर्वी भारत चावल उपजाता था तो पश्चिमी भारत जौ और गेहूँ।
- मध्य प्रदेश में कायथा और एरण की और पश्चिमी महाराष्ट्र में इनामगाँव की बस्तियाँ किलाबंद थीं।
- नवदाटोली, मध्य प्रदेश का एक महत्त्वपूर्ण ताम्र-पाषाणिक पुरास्थल है जो नर्मदा नदी के तट पर बसा है। इस स्थान पर अब तक सबसे अधिक अनाज के भण्डार पाए गए हैं।।
- ताम्रपाषाण काल के लोग लिखने की कला नहीं जानते थे। उल्लेखनीय है कि वे नगरों में न रहकर ग्रामीण समुदाय में रहते थे। जबकि काँस्य युग के लोग नगरवासी हो गए थे।
स्थान | संस्कृति |
दैमाबाद | जोरवे |
एरण | मालवा |
कालीबंगा | हड़प्पा |
गिलुंद | ताम्रपाषाणिक |
7. हड़प्पा संस्कृतिः कांस्य युग सभ्यता
हड़प्पा संस्कृति की विशेषताओं के संदर्भ में
- हड़प्पा संस्कृति एक नगरीय संस्कृति थी। इन नगरों में भवन ग्रीड पद्धति पर व्यवस्थित होते थे। उसके अनुसार सड़कें एक दूसरे को समकोण बनाती हुई काटती थीं और नगर अनेक खंडों में विभक्त थे।
- इन लोगों ने लेखन कला का आविष्कार किया था। इनकी लिपि चित्रलेखात्मक थी और चित्र के रूप में लिखा हर अक्षर किसी ध्वनि, भाव या वस्तु का सूचक है।
- इस संस्कृति में व्यापार, आदान-प्रदान तथा माप-तौल में 16 या उसके आवर्तकों का व्यवहार होता था, जैसे 16, 64, 160, 320 और 640 आदि । 16 के अनुपात की यह परंपरा भारत के आधुनिक काल तक चलती रही।
- हड़प्पा संस्कृति के लोग पत्थर और कांसे के बने औजारों का उपयोग करते थे।
- उल्लेखनीय है कि सिंधु सभ्यता के लोग गेहूँ, जौ, राई, मटर आदि अनाज पैदा करते थे। बनावली में जौ का पुरावशेष मिला है।
- सबसे पहले कपास पैदा करने का श्रेय सिंधु सभ्यता के लोगों को है। कपास का उत्पादन सबसे पहले सिंधु क्षेत्र में होने के कारण यूनान के लोग इसे सिन्डन कहने लगे थे, जो सिंधु शब्द से निकला है। इस काल के लोग तिल और सरसों का उत्पादन करते थे।
- कालीबंगा में जुते हुए खेत के अवशेष पाए गए हैं।
- हड़प्पा संस्कृति में पशुपति महत्त्वपूर्ण देवता था। एक मुहर पर एक योगी को ध्यान मुद्रा में एक टांग पर दूसरी टांग डाले (पद्मासन) बैठा दिखाया गया है। इसके चारों ओर एक हाथी, एक बाघ और एक गैंडा मुहर पर चित्रित हैं। इस देवता को पशुपति महादेव बताया जाता है।
- इस काल के लोग कांस्य के निर्माण और प्रयोग से भी भली-भाँति परिचित थे। सामान्यतः धातु शिल्पियों द्वारा काँसा निर्माण तांबे में टिन मिलाकर किया जाता था।
- हड़प्पा संस्कृति अश्व केन्द्रित नहीं थी । वैदिक काल में आर्यों द्वारा घोड़े का प्रयोग मुख्य रूप से किया जाता था।
हड़प्पा संस्कृति में व्यापार के संदर्भ में
- हड़प्पा संस्कृति के लोगों के जीवन में व्यापार का बड़ा महत्त्व था। इसकी पुष्टि हड़प्पा, मोहनजोदड़ो और लोथल में अनाज के बड़े-बड़े कोठारों से नहीं बल्कि एक बड़े भू-भाग में ढेर सारी मिट्टी की मुहरे और मानकीकृत माप-तौलों के अस्तित्व से भी होती है।
- इस काल के लोग व्यापार के लिये धातु के सिक्कों का प्रयोग नहीं करते थे। वे आदान-प्रदान वस्तु विनिमय द्वारा करते थे। वे मिट्टी की मुहरों का उपयोग करते थे।
हड़प्पा संस्कृति की धार्मिक प्रथा के संदर्भ में
- हड़प्पा संस्कृति के लोग वृक्ष, पशु और मानव के स्वरूप में देवताओं की पूजा करते थे, परंतु ये अपने देवताओं के लिये मंदिर निर्माण नहीं करते थे। उस काल में मंदिर मिस्र और मेसोपोटामिया में बनाए जाते थे।
- हड़प्पा संस्कृति के लोग पृथ्वी को उर्वरता की देवी समझते थे और उसकी पूजा उसी तरह से करते थे। उल्लेखनीय है कि हड़प्पा में पकी मिट्टी की मूर्तिका में स्त्री के गर्भ से निकलता पौधा दिखाया गया है। यह संभवतः पृथ्वी देवी की प्रतिमा है।
- सिंधु क्षेत्र के लोग वृक्ष व पशु पूजा करते थे। इनमें सबसे महत्त्व का पशु एक सींग वाला यूनीकॉर्न (जो गैंडा हो सकता है), कूबड़ वाले साँड़ की भी पूजा की जाती थी।
- हड़प्पा संस्कृति के लोग भूत-प्रेत में विश्वास करते थे। उनके अनिष्ट से बचने के लिये तावीज पहनते थे।
- हड़प्पा संस्कृति का नाम सबसे पहले 1921 में पाकिस्तान के प्रांत में अवस्थित हड़प्पा नामक आधुनिक स्थल का पता चलने के कारण पड़ा है। यह सिंधु और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र में है।
- संस्कृति पश्चिमोत्तर भारतीय उपमहादेश में उदित होकर दक्षिण और पूर्व की ओर फैली। इसका विस्तार कश्मीर से लेकर दक्षिण में नर्मदा के मुहाने तक और पश्चिम में बलूचिस्तान के मकरान समुद्र तट से लेकर दक्षिण में नर्मदा के मुहाने तक है।
- इस संस्कृति के परिपक्व अवस्था वाले नगरों में से धोलावीरा गुजरात के कच्छ क्षेत्र में अवस्थित है तथा राखीगढ़ी हरियाणा में घग्घर नदी पर स्थित है। दोनों नगरों में प्राक् हड़प्पा, हड़प्पाकालीन तथा उत्तर हड़प्पाकालीन की अवस्थाएँ मिलती हैं।
हड़प्पीय स्थल | स्थिति (भारत) |
रंगपुर | गुजरात |
कालीबंगा | राजस्थान |
राखीगढ़ी | हरियाणा |
मोहनजोदड़ो | सिंध |
- इस संस्कृति की सर्वोत्तम कलाकृतियाँ उनकी ‘मुहरें’ हैं। अब तक लगभग 2000 सीलें प्राप्त हुई हैं। इनमें से अधिकांश मुहरों पर लघु लेखों के साथ-साथ एक सिंगी जानवर, भैंस, बाघ, बकरी आदि की आकृतियाँ उकेरी गई हैं।
- सिंधु सभ्यता के लोगों के जीवन में व्यापार का बहुत महत्त्व था। शासकों का ध्यान क्षेत्र विजय की ओर नहीं था। सिंधु सभ्यता में अस्त्र-शस्त्रों का अभाव था।
- इस संस्कृति में शिल्पी धातु की खूबसूरत मूर्तियाँ बनाते थे। काँसे की नर्तकी उनकी मूर्तिकला का श्रेष्ठ नमूना है। परंतु यह लोग प्रस्तर शिल्प में पिछड़े हुए थे। प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया की तरह यहाँ कोई महान प्रस्तर प्रतिमा नहीं मिलती है।
- हड़प्पा संस्कृति कई तत्त्वों के आधार पर पश्चिमी एशिया की संस्कृति से अलग है।
- इनकी विकसित नगर योजना प्रणाली के विपरीत मिस्र और मेसोपोटामिया में नगर बेतरतीब बढ़ते जाने की प्रवृत्ति थी। इन देशों में नगर योजना नहीं पाई जाती थी।
- हड़प्पा की चित्रात्मक लिपि का मिस्र और मेसोपोटामिया की लिपियों से कोई समानता नहीं है।
- उल्लेखनीय है कि हड़प्पाइयों की मुहरें व मृदभांड पर अंकित पशु-मंडल स्थानीय हैं।
- हड़प्पा संस्कृति के सभी नगरों में सभी मकान आयताकार हैं, जिनमें पक्का स्नानागार और सीढ़ीदार कुआँ संलग्न है। पश्चिमी एशिया के नगरों में इस तरह की प्रणाली नहीं पाई जाती थी।
- यह संस्कृति कांस्ययुगीन थी। इस काल के लोग कांस्य निर्माण पद्धति से परिचित थे। ये धातु की खूबसूरत मूर्तियाँ बनाते थे, परंतु इनके औजार ज्यादातर पत्थर के बने होते थे।
- लोथल गुजरात में खंभात की खाड़ी पर स्थित बंदरगाह नगर था।
- इस काल में नालों को बाँधों से घेरकर जलाशय बनाने की परिपाटी बलूचिस्तान और अफगानिस्तान में पाई जाती थी, परंतु नहर/नालों से सिंचाई का चलन नहीं था।
- इस काल में लकड़ी के हलों का प्रयोग किया जाता था। राजस्थान के कालीबंगा में हल से जोते हुए खेत के निशान पाए गए हैं।
- हड़प्पा संस्कृति के नगरों में पक्की ईंटों का इस्तेमाल विशेष बात है। क्योंकि मिस्र के समकालीन भवनों में धूप से सुखाई गई ईंटों का ही प्रयोग हुआ था
- हड़प्पा संस्कृति के अंतर्गत पंजाब, सिंध और बलूचिस्तान के भाग के साथ गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सीमांत भाग थे। इसका पूरा क्षेत्रफल लगभग 12,99,600 वर्ग किलोमीटर है। इसका क्षेत्र ईसा पूर्व तीसरी और दूसरी सहस्राब्दि में संसार की सभी संस्कृतियों से बड़ा था।
- हड़प्पा संस्कृति के परिपक्व अवस्था वाले नगरों में सुतकागेंडोर और सुरकोटदा समुद्रतटीय नगर थे।
- इस संस्कृति के सात नगरों को ही परिपक्व अवस्था वाले नगर कहा जा सकता है। उनमें हड़प्पा, पंजाब में और मोहनजोदड़ो (अर्थात् प्रेतों का टीला) सिंध में (पाकिस्तान) हैं।
- हड़प्पा संस्कृति में समाज, शासक और सामान्य वर्ग में बँटा हुआ था। शासक वर्ग के लोग नगर दुर्ग में रहते थे। प्रत्येक नगर में दुर्ग के बाहर एक-एक निम्न स्तर का शहर था, जहाँ ईंटों के मकानों में सामान्य लोग रहते थे।
- इस काल में लिंग पूजा का प्रचलन पाया जाता है, जो कालान्तर में। शिव की पूजा से गहन रूप से जुड़ गया। हड़प्पा में पत्थर से बने लिंग के अनेक प्रतीक मिले हैं।
- उत्तर हड़प्पा काल में गुजरात के लोथल में अग्नि-पूजा की परम्परा चली थी, किंतु इसके लिये मंदिरों का उपयोग नहीं होता था। मिस्र और मेसोपोटामिया के नितांत विपरीत किसी भी हड़प्पाई स्थल पर मंदिर नहीं पाया गया है।
- मेलुहा सिंधु संस्कृति का प्राचीन नाम है। 2350 ई.पू. के आसपास मेसोपोटामियाई अभिलेखों में मेलुहा के साथ व्यापारिक संबंधों की चर्चा है। मेसोपोटामिया के पुरालेखों में दो मध्यवर्ती व्यापार केन्द्रों का उल्लेख मिलता है दिलमन और माकन। ये दोनों मेसोपोटामिया और मेलुहा के बीच में हैं।
हड़प्पाई नगरों के संदर्भ में
- कालीबंगा राजस्थान के गंगानगर जिले में घग्घर नदी के किनारे स्थित है। कालीबंगा का अर्थ है ‘काले रंग की चूड़ियाँ । यहाँ पर हड़प्पा पूर्व और हड़प्पाकालीन अवस्थाएँ देखने को मिलती हैं।
- विशाल स्नानागार मोहनजोदड़ो का सबसे महत्त्वपूर्ण सार्वजनिक स्थल है, जिसका जलाशय दुर्ग के टीले में है। यह ईंटों के स्थापत्य का सुंदर उदाहरण है।
- हड़प्पा संस्कृति मिस्रवासियों की तरह मातृ सत्तात्मक नहीं थी। मिस्र में सम्पत्ति/राज्य का उत्तराधिकार कन्या को मिलता था।
- इस संस्कृति में यूनीकॉर्न सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथा उसके बाद कूबड़ वाले सांड़ का महत्त्व था।
- सिंधु प्रदेश में टेराकोटा (आग में पकी मिट्टी) की बनी मूर्तिकाएँ फिगरिन कहलाती थीं।
- हड़प्पा संस्कृति का नाम सिंधु नदी के क्षेत्र में विकसित होने के कारण सिंधु सभ्यता भी कहा जाता है। यह सिंधु व उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र में विकसित हुई थी।
- मिस्र सभ्यता नील नदी के किनारे विकसित हुई थी। मिस्र के लोग नील नदी को आइसिस् देवी मानकर पूजा करते थे।
- मेसोपोटामिया सभ्यता का विकास दजला-फरात नदियों के क्षेत्र में हुआ था।
उत्तर हड़प्पा संस्कृति के संदर्भ में
- हड़प्पा संस्कृति के सुव्यवस्थित नगर-निवेश, व्यापक ईंट-संरचनाएँ लिखने की कला, मानक बाट-माप, दुर्गनगर, कांसे के औजारों का इस्तेमाल और काले रंग के मृदभांड से लेकर चित्रित लाल मृदभांड के निर्माण तक। इसमें शैलीगत एकरूपता समाप्त हो गई और शैली में विविधता आ गई।
- उत्तर- हड़प्पा संस्कृतियाँ मूलतः ताम्रपाषाणिक हैं, जिनमें पत्थर और तांबे के औजारों का उपयोग होता था। इनमें धातु के ऐसे उपकरण बनते थे, जिनकी ढलाई आसान है।
- उल्लेखनीय है कि इस संस्कृति के लोग गांवों में बस गए और खेती, पशुपालन, शिकार और मछली पकड़ने का व्यवसाय करने लगे थे।
8. आर्यों का आगमन और ऋग्वैदिक युग
आर्यों के संदर्भ में
- आर्य मध्य एशिया से भारत की ओर आए। इनका मूल निवास स्थान आल्प्स पर्वत के पूर्वी क्षेत्र में यूरेशिया में था। यह बात आनुवंशिक आधार पर सिद्ध हो चुकी है।
- आयों का मुख्य व्यवसाय पशुचारण था, कृषि का स्थान गौण था।
- आर्य लोगों के जीवन में घोड़े का सबसे अधिक महत्त्व था। घोड़े की तेज गति के कारण आर्य अलग-अलग दिशाओं में फैले थे।
ऋग्वेद के संदर्भ में
- ऋग्वेद सबसे पहला और प्राचीनतम ग्रन्थ है। भारत में आयों की जानकारी इसी से मिलती है। इसमें आर्य शब्द का 36 बार उल्लेख हुआ है।
- ऋग्वेद में दस मंडल या भाग हैं, जिनमें मंडल 2 से 7 तक प्राचीनतम अंश हैं। प्रथम और दसवाँ मंडल सबसे बाद में जोड़े गए हैं।
- अवेस्ता ईरानी भाषा का प्राचीनतम ग्रन्थ है। ऋग्वेद की अनेक बातें अवेस्ता से मिलती हैं। दोनों ग्रन्थों में बहुत-से देवताओं और सामाजिक वर्गों के नाम समान हैं।
वैदिक संस्कृति के संदर्भ में
- सिंधु आर्यों की सबसे प्रमुख नदी थी। ऋग्वेद में सिंधु और उसकी पाँच सहायक नदियों का नामोल्लेख है। सरस्वती उनके द्वारा उल्लेखित दूसरी महत्त्वपूर्ण नदी थी, इसे नदीतम अर्थात् सर्वश्रेष्ठ नदी कहा गया था।
- आर्य लोगों ने जहाँ पहले निवास किया, वह प्रदेश सप्त सिंधु के नाम से प्रसिद्ध हुआ और इसमें अफगानिस्तान का भाग भी पड़ता है।
- आर्यों की शवदाह प्रथा के प्रचलन के साक्ष्य मध्य एशिया में दक्षिण तजाकिस्तान, पाकिस्तान की स्वात घाटी, पिराक क्षेत्र और गोमल (गोमती) घाटी में भी लगभग 1500 ई.पू. के मिलते हैं।
- ऋग्वेद में दस्यु यहाँ के मूल निवासियों को कहा जाता था। आयों के जिस राजा ने उन्हें पराजित किया, वह त्रसदस्यु कहलाया। ऋग्वेद में | दस्यु हत्या शब्द का बार-बार उल्लेख मिलता है। दस्यु लोग लिंग पूजा करते थे।
- ऋऋग्वेद में इन्द्र को पुरंदर कहा गया है, जिसका अर्थ है दुर्गों को तोड़ने वाला। इन्द्र आर्यों के प्रमुख देवता थे।
- आर्य लोग हर जगह इसलिये जीते गए क्योंकि उनके पास अश्वचालित रथ थे और उन्होंने पश्चिम एशिया और भारत में पहले-पहल इन रथों को प्रचलित किया था। उन्होंने काँसे के बेहतर हथियारों का भी प्रयोग किया था।
- पंचजन आर्यों के पाँच कबीलों का समुदाय कहलाता था। ये आपस में लड़ते रहते थे। और कभी-कभी आर्योत्तर जनों का सहारा भी लेते थे।
- दाशराज्ञ युद्ध भरत कुल के राजा सुदास और दस राजाओं के बीच हुआ था। यह युद्ध परुष्णी नदी जिसे आज रावी नदी के नाम से जाना जाता है, के तट पर हुआ था। इसमें राजा सुदास की जीत हुई और इस प्रकार आगे चलकर हमारे देश का नाम भारतवर्ष भरत कुल के नाम पर पड़ा।
- इस काल में गाय सबसे उत्तम धन मानी जाती थी। आयों की अधिकांश लड़ाईयाँ गायों को लेकर हुई हैं। ऋग्वेद में युद्ध का पर्याय गाविष्टि (गाय का अन्वेषण) है।
- आर्य लोग नगर में नहीं रहते थे, वे गढ़ बनाकर मिट्टी के घर वाले गाँवों में रहते थे।
- इस काल में तांबे या काँसे के अर्थ में ‘अयस’ शब्द का प्रयोग होता था। उन्हें धातु कर्म की जानकारी थी। आर्य लोगों में बढ़ई, रथकार, बुनकर और कुम्हार आदि शिल्पियों के उल्लेख मिलते हैं।
- इस काल में हरियाणा में भगवानपुरा नामक स्थल की और पंजाब में तीन स्थलों पर चित्रित धूसर मृदभांड के अवशेष पाए गए हैं। इनका काल ऋग्वेद के समकालीन है।
- ऋग्वेद काल में बाल विवाह का प्रचलन नहीं था। इस काल में विवाह की आयु 16-17 वर्ष थी। विधवा विवाह का प्रचलन भी था।
- इस काल में रोमन समाज की तरह पितृतंत्रात्मक व्यवस्था का प्रचलन था । निरन्तर युद्ध होने के कारण लोग हमेशा वीर पुत्रों की कामना करते थे।
- इस काल में अदिति और उषा जो प्रभात समय का प्रतिरूप है, की पूजा होती थी। परंतु प्रार्थना में देवियों को देवताओं की स्थान प्राप्त नहीं था। तुलना प्रमुख
- ऋग्वेद में किसी तरह के न्यायाधिकारी का उल्लेख नहीं है। यहाँ समाज विरोधी हरकतों को रोकने तथा व्यवस्था बनाए रखने के लिये गुप्तचर रखे जाते थे।
- ऋग्वैदिक काल में अधिकारी विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े थे। चरागाह या बड़े जत्थे का प्रधान व्राजपति कहलाता था।
- परिवारों के प्रधानों को कुलपा कहा जाता था।
- ग्रामणी आरम्भ में छोटी-सी कबायली लड़ाकू टोली का मुखिया होता था। बाद में जब ऐसी टोलियाँ स्थिरवासी हो गई, तब ग्रामणी मारे गाँव का मुखिया हो गया।
- उल्लेखनीय है कि व्रात, गण, ग्राम और सर्ध आदि नाम से विभिन्न कबायली टोलियाँ लड़ाई लड़ती थी। इस काल में कबायली ढंग का शासन था, जिसमें सैनिक तत्त्व प्रबल होता था।
- आर्य नाम का उल्लेख अनातोलिया (तुर्की) में उन्नीसवीं से सत्रहवीं सदी ई.पू. के हिट्टाइट अभिलेख में, ईराक में 1600 ई.पू. के कस्साइट अभिलेख में तथा सीरिया में मितन्नी अभिलेखों में मिलता है।
- ऋग्वेद में परिवार के लिये ‘गृह’ शब्द का प्रयोग होता था। इसमें माता, पिता, पुत्र, दास आदि के अलावा अन्य और भी लोग आते थे। उस समय पृथक कुटुंबों की स्थापना की दिशा में पारिवारिक संबंधों का विभेदीकरण बहुत अधिक नहीं था। कुटुंब एक बड़ी सम्मिलित इकाई थी।
- ऋग्वेद में कबीले के लिये दूसरा महत्त्वपूर्ण शब्द ‘विश’ का प्रयोग होता था। विश् को लड़ाई के उद्देश्य से ग्राम नामक टोलियों में बाँटा गया था। ऋग्वेद में इसका उल्लेख 170 बार हुआ है।
- उल्लेखनीय है कि ऋग्वेद में ‘जनपद’ शब्द एक बार भी नहीं आया है।
- वैदिक काल के लोग देवताओं की उपासना आध्यात्मिक उत्थान या से संतति, पशु, अन्न, धान्य और आरोग्य आदि पाने की कामना से जन्म-मृत्यु के कष्टों से मुक्ति के लिये नहीं करते थे। वे अपने देवताओं करते थे।
- इस संस्कृति में देवताओं की उपासना की मुख्य रीति स्तुति-पाठ करना और यज्ञ-बलि अर्पित करना था। इस काल में स्तुति पाठ पर अधिक जोर था। यह सामूहिक भी होता था और अलग-अलग भी।
- इस काल में पुरोहितों को दक्षिणा में गाय और दासियाँ दी जाती थी। भूमि का दान नहीं होता था। इस काल में लोग गाय चराने, खेती करने और रहने के लिये भूमि पर अधिकार करते थे, परंतु भूमि निजी संपत्ति नहीं होती थी।
- आरंभिक आर्यों का निवास पूर्वी अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत में पंजाब और हरियाणा में था।
- ऋग्वेद में पुरोहित विश्वामित्र ने लोगों को आर्य बनाने के लिये गायत्री मंत्र की रचना की थी।
- ऋग्वेद में व्यवसाय के आधार पर समाज में वर्ण व्यवस्था का आरम्भ हुआ था, परंतु यह बहुत कड़ा (कट्टर) नहीं था। चतुर्थ वर्ण शूद्र कहलाता था। वह ऋग्वेद के अंत में दिखाई पड़ता है। क्योंकि इसका वर्णन दशम् मंडल में है, जो सबसे बाद में जोड़ा गया है।
देवता | शक्तियाँ |
इन्द्र | वर्षा का देवता |
वरुण | जल का देवता |
मारुत | आंधी का देवता |
सोम | वनस्पतियों का देवता |
ऋग्वैदिक काल में राज्य व्यवस्था के संदर्भ में
- ऋग्वैदिक काल में राजा का पद आनुवंशिक हो चुका था। वह राजन् (राजा) कहलाता था, परंतु उसके हाथ में असीमित अधिकार नहीं थे। उसे कबायली संघटनों से सलाह लेनी पड़ती थी। कबीले की आम सभा जो समिति कहलाती थी, यह अपने राजा को चुनती थी।
- ऋग्वेद में कुल के आधार पर बहुत से संघटनों का उल्लेख मिलता है, जैसे सभा, समिति, विदथ और गण। इनमें से सभा और समिति महत्त्वपूर्ण थे। राजा को इनका समर्थन आवश्यक होता था।
- इस काल में स्त्रियों की दशा अच्छी थी। वे यज्ञ, सभा और विदथ में भाग लेती थीं।
- ऋग्वेद में अग्नि, इन्द्र, वरुण, और मित्र आदि देवताओं की स्तुतियाँ संगृहीत हैं।
- ऋग्वेद में इन्द्र को बादल का देवता माना गया है। अग्नि का स्थान दूसरा है। वे लोग मानते थे कि अग्नि में डाले जाने वाली आहुतियाँ धुआँ बनकर आकाश में जाकर अंततः देवताओं को मिल जाती हैं।
- पशुपति को हड़प्पा काल का मुख्य देवता माना गया है न कि ऋग्वैदिक काल का। अतः ऋग्वेद में पशुपति की स्तुति का वर्णन नहीं मिलता।
9. उत्तर वैदिक अवस्था: राज्य और वर्ण व्यवस्था की ओर
वैदिककालीन साहित्य के संदर्भ में
- वैदिक सूक्तों या मंत्रों के संग्रह को संहिता कहा जाता है। इसी के आधार पर आरंभिक वैदिक युग का वर्णन किया गया है।
- चारों वेदों (ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद) में से ऋग्वेद संहिता सबसे पुराना वैदिक ग्रन्थ है।
- ब्राह्मण ग्रन्थ की रचना वैदिक संहिता के बाद हुई है। इनमें वैदिक अनुष्ठान की विधियाँ संगृहीत हैं और उन अनुष्ठानों की सामाजिक एवं धार्मिक व्याख्या भी दी गई है। उल्लेखनीय है कि ऋग्वेद काल के बाद रचे गए ग्रन्थों पर आधारित इतिहास उत्तर वैदिक काल कहलाता है।
संहिता | विषय वर्णन |
ऋग्वेद | देवताओं की स्तुति |
सामवेद | गायन |
यजुर्वेद | ऋचाएँ तथा कर्मकाण्ड |
अथर्ववेद | व्याधियों के निवारण हेतु तंत्र-मंत्र |
वैदिक और उत्तर- वैदिक अवस्था में ग्रन्थों के रचना काल के संदर्भ में
- ऋग्वेद की रचना 1500-1000 ई. पू. के आस-पास के पश्चिमोत्तर भारत (पंजाब, हरियाणा) में हुई थी।
- उत्तर-वैदिककालीन ग्रन्थों की रचना 1000-500 ई.पू. में उत्तर गंगा के मैदान में हुई थी।
उत्तर- वैदिक काल के संदर्भ में
- इस काल में कृषि लोगों की जीविका का मुख्य साधन हो गई थी। वैदिक ग्रन्थों में बैल से हल जोते जाने की चर्चा है।
- वैदिक काल के लोग जौ तो उपजाते ही रहे, पर इस काल में चावल और गेहूँ भी उनकी मुख्य फसलों में शामिल हो गए। बाद में चलकर गेहूँ पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश का मुख्य खाद्य हो गया।
- • उल्लेखनीय है कि वैदिक ग्रन्थों में चावल का नाम ब्रीहि है।
- उत्तर वैदिक काल के लोग चार प्रकार के मृदभांडों से परिचित थे-काला व लाल मृदभांड, काली पॉलिशदार मृदभांड, चित्रित धूसर मृदभांड और लाल मृदभांड। इनमें लाल मृदभांड सबसे अधिक प्रचलित था। चित्रित धूसर मृदभांड उनके सर्वोपरि वैशिष्ट्य का सूचक है।
उत्तर- वैदिक काल में राजनीतिक संगठन के संदर्भ में
- इस काल में राजा अधिकाधिक शक्तिशाली हो गया था। राज्य में राजा का पद आनुवंशिक हो गया तथा ज्येष्ठ पुत्र को उत्तराधिकारी बनाया जाता था, परंतु राजा कोई स्थायी सेना नहीं रखता था। युद्ध के समय कबीले के जवान भर्ती कर लिये जाते थे।
- इस काल में सभा, समितियों के महत्त्व में कमी आ गई थी। विदध का नामोनिशान नहीं रहा। सभा, समिति अपनी जगह बनी रही. परंतु उनका रंग-ढंग बदल गया। उनमें राजाओं और अभिजात्यों का अधिकार हो गया था।
- राष्ट्र’ शब्द जिसका अर्थ प्रदेश या क्षेत्र होता है. समय मिलने लगा था।
उत्तर वैदिक काल में किये जाने वाले यज्ञों के संदर्भ में
- उत्तर वैदिक काल में कर्मकांडीय विधान राजा को शक्तिशाली बनाने के लिये किये जाते थे। राजा राजसूय यज्ञ करता था. जिससे यह समझा जाता था कि उसे दिव्य शक्ति मिल गई।
- अश्वमेघ यज्ञ राज्य विस्तार के लिये किया जाता था। इस यज्ञ में राजा का घोड़ा छोड़ा जाता था। छोड़ा गया घोड़ा जिन-जिन क्षेत्रों से बेरोक टोक गुजरता था, उन सारे क्षेत्रों पर उस राजा का एकछत्र राज्य माना जाता था।
- उल्लेखनीय है कि राजा वाजपेय यज्ञ ( रथदौड़) भी करता था। जिसमें राजा का रथ उसके अन्य सभी बंधुओं से आगे निकलता था। इन सारे अनुष्ठानों से प्रजा के चित्त पर राजा की बढ़ती हुई शक्ति और महिमा की गहरी छाप पड़ती थी।
उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की दशा के संदर्भ में
- उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की दशा में गिरावट आई। उन्हें पुरुष के अधीनस्थ माना जाने लगा तथा उन्हें शिक्षा से वंचित किया जाने लगा।
- इस काल में स्त्रियों को सम्पति के अधिकार तथा उपनयन संस्कार से प्रतिबंधित कर दिया गया।
- इस काल में सभा, समिति तथा विदथ अपनी जगह बनी रही, परंतु उनका महत्त्व पहले जैसा नहीं था। अब सभा में स्त्रियों का प्रवेश निषेध हो गया।
उत्तर- वैदिक काल के संदर्भ में
- उत्तर-वैदिककालीन ग्रंथों में तीन उच्च वर्णों और शूद्रों के बीच विभाजक रेखा देखने को मिलती है। चतुर्थ वर्ण शुद्र की सामाजिक दशा में गिरावट आई। उन्हें उपनयन संस्कार से वंचित कर दिया गया और यहीं से उपनयन का अभाव शूद्र की दासता का द्योतक बन गया। वे गायत्री मंत्र का उच्चारण नहीं कर सकते थे।
- इस काल में मनुष्य का जीवन चार आश्रमों ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और सन्यास आश्रम में बाँटा गया। उल्लेखनीय है कि उत्तर-वैदिक काल में तीन आश्रमों का उल्लेख है। चतुर्थ आश्रम सुप्रतिष्ठित नहीं हुआ था।
- इस काल में आराधना मुख्य रूप से यज्ञों द्वारा होती थी। यज्ञों के साथ अनेकानेक अनुष्ठान व मंत्रविधियाँ प्रचलित हुई।
- उत्तर वैदिक काल में गोत्र- प्रथा स्थापित हुई। गोत्र शब्द का मूल अर्थ है गोष्ठ या वह स्थान जहाँ समूचे कुल का गोधन पाला जाता था, परंतु बाद में इसका अर्थ एक ही मूल पुरुष से उत्पन्न लोगों का समुदाय हो गया। फिर गोत्र से बाहर विवाह करने की प्रथा चल पड़ी।
- इस काल के अंतिम दौर में, पुरोहितों के प्रभुत्व और कर्मकांडों के विरुद्ध प्रबल प्रतिक्रिया शुरू हुई। यह प्रतिक्रिया पांचाल और विदेह के राज्य में विशेषकर हुई।
- उपनिषद ग्रन्थों की रचना 600 ई. पू. के आसपास हुई थी। इनका विषय दर्शन था, इनमें कर्मकांड की निंदा की गई है और यथार्थ विश्वास एवं ज्ञान को महत्त्व दिया गया। उपनिषदों में कहा गया है। कि अपनी आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये और ब्रह्म के साथ आत्मा का संबंध ठीक से जानना चाहिये।
- इस काल में लौह धातु को श्याम या कृष्ण अयस कहा गया है। इस काल के लोग लोहे के बने हथियारों और औजारों का प्रयोग करते थे। विस्तार करने तथा ऊपरी गंगा के मैदानों के जंगलों को साफ करने में लोहे की कुल्हाड़ी का प्रयोग किया गया था। इस काल में लोहे के प्रयोग का प्रमाण मृतकों के साथ कब्रों में दबाए गए लोहे के औजार भारी मात्रा में खुदाई से मिले हैं।
- ‘शतपथ’ ब्राह्मण में हल के संबंध में वर्णन किया है।
- महाभारत महाकाव्य में वर्णित ‘कुरु’ कुल दो प्रमुख कबीलों भरत और पुरु एक होकर बना था। आरम्भ में ये लोग सरस्वती और दृषद्वती नदियों के प्रदेश में बसे । कुरू कुल का इतिहास महाभारत युद्ध को लेकर प्रसिद्ध है, जिस पर महाभारत महाकाव्य विख्यात है।
- इस काल में ‘संगृहीत का कार्य कर एकत्र करना था।
वैदिक काल के राजनीतिक संगठन को बढ़ते क्रम में व्यवस्थित
कुल < ग्राम < विश् < जन < राष्ट्र |
उत्तर- वैदिक काल के देवताओं के संदर्भ में
- उत्तर वैदिक काल में इन्द्र व अग्नि देवता (वैदिककालीन) अब उसने प्रमुख नहीं रहे थे। इनकी जगह सृजन के देवता प्रजापति को सर्वोच्च स्थान मिला था।
- विष्णु देवता इस काल में पालक और रक्षक देवता के रूप में प्रसिद्ध हुए थे। उल्लेखनीय है कि पशुओं के देवता रूद्र ने उत्तर वैदिक काल में महत्ता पाई थी।
- ‘पूषन्’ जो पशुओं की रक्षा करने वाला माना जाता था. शूद्रों का देवता हो गया था।
10. जैन और बौद्ध धर्म
जैन और बौद्ध धर्म के उदय के संदर्भ में
- वैदिकोत्तर काल में समाज चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) में विभाजित था। यह वर्ण व्यवस्था जन्म के आधार पर निश्चित की गई थी। इसमें ब्राह्मणों को विशेषाधिकार दिये गए और वे समाज में सर्वोच्च होने का दावा करते थे।
- क्षत्रियों को दूसरा तथा वैश्य को तीसरा स्थान प्राप्त था । वैश्य वर्ण को कर चुकाने का दायित्व तथा चतुर्थ शूद्र वर्ण को तीनों वर्णों की सेवा का कर्त्तव्य था। इस तरह के वर्ण-विभाजन वाले समाज में तनाव पैदा होने की प्रतिक्रिया स्वरूप तथा ब्राह्मणों के श्रेष्ठता के विरुद्ध क्षत्रियों का खड़ा होना भी इसका अन्यतम कारण हुआ।
- पूर्वोत्तर भारत में अच्छी वर्षा होने के कारण घने जंगल छाए हुए थे। उन जंगलों को साफ करने के लिये लोहे के औजारों का इस्तेमाल होने लगा तो मध्य गंगा के मैदानों में भारी संख्या में लोग बसने लगे। इस प्रदेश में बड़ी-बड़ी बस्तियाँ बसने लगीं और खेती करने के लिये लोहे के हलों के लिये बड़ी संख्या में बैलों की जरूरत होने लगी।
- हालाँकि उस समय बैलों (वैदिक कर्मकाण्डों में बलि के कारण) की कमी थी, इसलिये नई कृषिमूलक अर्थव्यवस्था को चलाने के लिये पशु वध को रोकना आवश्यक था। अतः इन दोनों धर्मों में अहिंसा पर बल दिया गया।
- दोनों धर्मों का उदय तात्कालिक जन्ममूलक वर्ण व्यवस्था पर आधारित समाज की प्रतिक्रिया-स्वरूप हुआ था। उन्होंने आरंभिक अवस्था में वर्ण व्यवस्था को कोई महत्त्व नहीं दिया।
- दोनों धर्मो ने अहिंसा को विशेष स्थान दिया, क्योंकि अहिंसा से युद्धों का अंत हो सकता था। इसके फलस्वरूप व्यापार वाणिज्य में उन्नति हो सकती थी और असंख्य यज्ञों में बछड़ों और साँडों के लगातार मारे जाने से क्षीण होते पशुधन को बचाया जा सकता था। यह पशुधन कृषिमूलक अर्थव्यवस्था के लिये आवश्यक था।
- दोनों धर्मों के भिक्षुओं को आदेश था कि वे जीवन की विलासिता की वस्तुओं का प्रयोग न करें। वे दाताओं से उतना ही दान ग्रहण करें। जितना प्राण रक्षा के लिये आवश्यक हो। वे सरल, शुद्ध और संयमित जीवन के पक्षधर थे।
- जैन धर्म में धर्म के सिद्धांतों के उपदेष्टा तीर्थंकर कहलाते थे। इसमें 24 तीर्थंकर हुए थे। महावीर को चौबीसवाँ व अंतिम तीर्थंकर माना जाता है।
- जैन धर्म के संस्थापक ऋषभदेव को माना जाता है। पाश्र्वनाथ तेइसव तीर्थंकर माने जाते हैं, जो वाराणसी के निवासी थे।
- महावीर की माता का नाम त्रिशला था, जो बिम्बिसार के ससुर लिच्छवी- नरेश चेतक की बहन थी। उनके पिता का नाम सिद्धार्थ था तथा वे क्षत्रिय कुल के प्रधान थे।
- जैन धर्म में पूर्वजन्म का अस्तित्व स्वीकार किया गया है। तीर्थकर | महावीर के अनुसार, पूर्वजन्म में अर्जित किये गए पुण्य या पाप के अनुसार ही उच्च या निम्न कुल में जन्म होता है। उनके मतानुसार शुद्ध और अच्छे आचरण वाले निम्न जाति के लोग भी मोक्ष पा सकते हैं।
- कैवल्य द्वारा सुख-दुख पर विजय प्राप्त करने के कारण महावीर ‘जिन’ और उनके अनुयायी ‘जैन’ कहलाते थे। ।
- महावीर ने जैन धर्म के पाँच व्रतों में पाँचवां व्रत ब्रह्मचर्य को जोड़ा था
- जैन अनुयायियों के संघ में स्त्री और पुरुष दोनों को स्थान मिला था।
- जैन धर्म में सांसारिक बंधनों से छुटकारा पाने के उपाय बताए गए हैं। मोक्ष पाने के लिये कर्मकांडीय अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है। यह सम्यक् ज्ञान, सम्यक ध्यान और सम्यक् आचरण से प्राप्त किया जा सकता है। ये तीनों जैन धर्म के त्रिरत्न माने जाते हैं।
- कपिलवस्तु के निकट नेपाल के तराई में अवस्थित लुम्बिनी को महात्मा बुद्ध का जन्म स्थान माना जाता है। अन्य तीनों नगर महावीर से संबंधित हैं।
- वैशाली को महावीर का जन्म स्थान, पावापुरी को निर्वाण स्थान तथा चंपा में महावीर ने उपदेश दिये थे।
जैन धर्म के संदर्भ में
- जैन धर्म के उपदेशों को संकलित करने के लिये पाटलिपुत्र में एक परिषद् का आयोजन किया गया था।
- जैन धर्म में धर्मोपदेश के लिये आम लोगों के बोलचाल की प्राकृत भाषा को अपनाया गया तथा धार्मिक ग्रन्थों के लिये अर्द्ध-मागधी भाषा को। ये ग्रन्थ ईसा की छठी सदी में गुजरात के वलभी नामक स्थानमें जो महान विद्या का केन्द्र था, अंतिम रूप से संकलित किये गए।प्राकृत भाषा से कई क्षेत्रीय भाषाएँ विकसित हुई।
- बौद्धों की तरह जैन लोग आरम्भ में मूर्तिपूजक नहीं थे, बाद में वे महावीर और तीर्थकरों की पूजा करने लगे। इसके लिये सुन्दर और विशाल प्रस्तर- प्रतिमाएँ विशेषकर कर्नाटक, गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश में निर्मित हुई।
- जैन धर्म ने देवताओं का अस्तित्व स्वीकार किया है, परंतु उनका स्थान ‘जिन’ से नीचे रखा गया है।
- पाँचवीं सदी में कर्नाटक में स्थापित जैन मठ ‘बसदि’ कहलाते थे।
- जैन धर्म में कृषि और युद्ध दोनों वर्जित हैं क्योंकि दोनों से जीव हिंसा होती है। फलत: जैन धर्मावलम्बियों में व्यापार और वाणिज्य करने वालों की संख्या अधिक थी।
महात्मा बुद्ध के संदर्भ में
- गौतम बुद्ध ने अपने ज्ञान का प्रथम प्रवचन वाराणसी के सारनाथ नामक स्थान पर दिया। बौद्ध धर्म में इसे धर्म चक्रप्रवर्तन कहा गया है।
- महात्मा बुद्ध ने अपना ध्यान सांसारिक समस्याओं में लगाया, वे व्यर्थ के वाद-विवादों में नहीं उलझे, चूँकि उस समय आत्मा और परमात्मा के विषय पर चर्चा जोरों से चल रही थी। बुद्ध कहते थे संसार दुःखमय है, मनुष्य की इच्छाएँ (लालसा) दुःख का कारण हैं, अगर इन पर विजय पाई जाए तो मनुष्य का निर्वाण संभव है।
- बौद्ध धर्म में मध्यम मार्ग को ही श्रेष्ठ मार्ग माना गया है। ये अत्यधिक विलासिता और अत्यधिक संयम को स्वीकार नहीं करते थे।
- बौद्ध धर्म में ईश्वर और आत्मा की सत्ता स्वीकार नहीं की गई है। बौद्ध धर्म शुरू से ही दार्शनिक वाद-विवादों के जंजाल में नहीं पड़ा, इसने लोगों के व्यावहारिक दुखों को दूर करना ही अपना उद्देश्य समझा।
बौद्ध धर्म में ह्रास के संदर्भ में
- ब्राह्मणों ने बौद्ध धर्म की चुनौतियों का मुकाबला करने के लिये अपने धर्म में सुधार किया। उन्होंने गोधन की रक्षा पर बल दिया तथा स्त्रियों और शूद्रों के लिये भी धर्म का मार्ग प्रशस्त किया।
- बौद्ध भिक्षु जनजीवन की मुख्य धारा से कटते गए। उन्होंने पालि भाषा को छोड़ दिया और संस्कृत भाषा को ग्रहण किया। बौद्ध विहार राजाओं से सम्पत्तियाँ दान में लेने लगे। विहारों में अपार संपत्ति आने से और स्त्रियों के प्रवेश होने से उनकी स्थिति और भी खराब हो गई। अब बौद्ध धर्म में कर्मकांडों को ज्यादा महत्त्व दिया जाने लगा।
- उत्तर वैदिक काल में दो उच्च वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय) को द्विज कहा जाता था। द्विज को जनेऊ पहनने का और वेद पढ़ने का अधिकार था। वैश्य को भी द्विज समूह में शामिल किया जाता था। परंतु शूद्रों को इससे वंचित रखा गया था।
नगर संस्कृति > लोहे का हल > पंचमार्क्ड > सोने के सिक्के |
- भारत में सबसे प्राचीन सभ्यता ‘हड़प्पा सभ्यता’ अपनी नगर योजना के लिये प्रसिद्ध है।
- लोहे का ज्ञान कांसे के बाद वैदिक काल में 1000 ई.पू. में हुआ।
- भारत में सबसे प्राचीन सिक्के पंचमार्क्स/आहत सिक्के 6ठी शताब्दी ई.पू. में अस्तित्व में आए।
- सबसे पहले भारत में सोने के सिक्के हिंद-यवन शासकों (द्वितीय शताब्दी ई.पू.) ने जारी किये।
- वैश्यों में वणिक जो व्यापार करते थे, सेट्ठि कहलाते थे। क्षत्रियों के अतिरिक्त वैश्यों ने महावीर और गौतम बुद्ध दोनों की उदारतापूर्वक सहायता की थी।
जैन और बौद्ध धर्मों के समान धार्मिक विश्वास के संदर्भ में
- दोनों धर्म समान रूप से अहिंसा का उपदेश देते हैं। दोनों धर्मों के पंचव्रत में अहिंसा को स्थान दिया गया है।
- बौद्ध और जैन दोनों संप्रदाय सरल शुद्ध और संयमित जीवन के पक्षधर हैं। दोनों संप्रदाय के भिक्षुओं को आदेश था कि वे जीवन में विलास की वस्तुओं का उपयोग नहीं करें। उन्हें दाताओं से उतना ही ग्रहण करना था जितने से उनकी प्राण-रक्षा हो।
- मध्यम मार्ग (मध्यम प्रतिपदा) का मार्ग बौद्ध धर्म में अपनाया गया है, जैन धर्म में नहीं। बौद्ध धर्म के अनुसार न अत्यधिक विलास करना चाहिये न अत्यधिक संयम में रहना चाहिये। वे मध्यम मार्ग के प्रशंसक थे।
जैन और बौद्ध धर्मों को सहायता देने में वैश्य वर्ग के आगे रहने के कारणों के संदर्भ में
- दोनों धर्मों में शांति और अहिंसा का उपदेश होता था, जिससे विभिन्न राजाओं के बीच होने वाले युद्धों का अंत हो सकता था। फलस्वरूप वैश्व वर्ग के व्यापार-वाणिज्य में उन्नति संभव थी।
- ब्राह्मणों की कानून संबंधी पुस्तकें, जो धर्मसूत्र कहलाती थीं, सूद पर धन लगाने के कारोबार को निंदनीय समझा जाता था और में सूद पर जीने वालों को अधम कहा जाता था। अतः जो वैश्य व्यापार-वाणिज्य में वृद्धि होने के कारण महाजनी करते थे, वे समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिये इन धर्मों (जैन एवं बौद्ध) की ओर आकर्षित हुए। व्यापार में सिक्कों के प्रचलन से व्यापार वाणिज्य बढ़ा और उससे समाज में वैश्यों का महत्त्व बढ़ा। स्वभावतः वे किसी ऐसे धर्म की। खोज में थे जहाँ उनकी सामाजिक स्थिति सुधरे। इसलिये उन्होंने उदारतापूर्वक दान दिये।
बौद्ध भिक्षु और ब्राह्मण धर्म के अनुयायियों के संदर्भ में
- बौद्ध धर्म तथा ब्राह्मण धर्म के अनुयायी दोनों समाज में वर्ग/वर्णमूलक व्यवस्था के समर्थक थे। परंतु बौद्ध धर्म गुण और कर्म के अनुसार वर्ण व्यवस्था मानते थे, जबकि ब्राह्मण जन्म के अनुसार मानते थे।
- उल्लेखनीय है कि बौद्ध भिक्षु संसार से विरक्त रहते थे और ब्राह्मणों की निंदा करते थे, परंतु दोनों के विचार परिवार का पालन करने, निजी सम्पत्ति की रक्षा करने और राजा का सम्मान करने पर समान थे।
बौद्ध धर्म के संदर्भ में
- बौद्ध धर्म ने अहिंसा और जीवमात्र के प्रति दया की भावना जगा कर देश में पशुधन की वृद्धि की। प्राचीनतम बौद्ध ग्रन्थ सुत्तनिपात में गाय को भोजन, रूप और सुख देने वाली (अन्नदा, वन्नदा और सुखदा) कहा गया है और इसी कारण उसकी रक्षा करने का उपदेश दिया गया है।
- बौद्ध धर्म में अपने सिद्धांतों का प्रतिपादन करने के लिये बौद्धों ने साहित्य-सर्जना में आमजन की भाषा पालि को अपनाया, जबकि जैन धर्म ने प्राकृत भाषा को।
- बौद्ध धर्म ने बौद्धिक और साहित्यिक जगत में भी चेतना जगाई। इसने लोगों को बताया कि किसी भी वस्तु को भली-भाँति गुण-दोषों का ‘विवेचन करके ग्रहण करें, तथा अंधविश्वास की जगह तर्क के आधार पर विश्वास करें। इससे लोगों में ‘बुद्धिवाद’ का महत्त्व बढ़ा
बौद्ध धर्म के साहित्य के संदर्भ में
- बौद्ध धर्म के आरम्भिक पालि साहित्य को तीन कोटियों में बाँटा जा सकता है।
- बुद्ध
- (संघ और
- धम्म
- बौद्ध साहित्य की तीसरी कोटि ‘धम्म’ में दार्शनिक विवेचन दिये गए हैं। उल्लेखनीय है कि प्रथम कोटि में ‘बुद्ध’ के वचन और उपदेश हैं। दूसरी कोटि ‘संघ’ में सदस्यों द्वारा पालनीय नियम बताए गए हैं।
- बौद्ध विहार महान विद्या केंद्र हो गए थे, जिन्हें आवासीय (छात्रावासीय) विश्वविद्यालय की संज्ञा दी जा सकती है। इनमें बिहार में नालंदा और विक्रमशीला तथा गुजरात में वलभी उल्लेखनीय है। सम्राट अशोक के शासनकाल में तक्षशिला महान बौद्ध विद्या केंद्र था।
बौद्ध धर्म के संदर्भ में
- प्राचीन भारत की कला पर बौद्ध धर्म का स्पष्ट प्रभाव है। भारत में पूजित पहली मानव प्रतिमाएँ बुद्ध की हैं। श्रद्धालु उपासकों ने बुद्ध के जीवन की अनेक घटनाओं को पत्थरों पर उकेरा है।
- भारत के पश्चिमोत्तर सीमांत में यूनान और भारत के मूर्तिकारों ने नए ढंग की कला की सृष्टि करने के लिये सम्मिलित रूप से प्रयास किया, जिसका परिणाम ‘गंधार कला’ शैली के नाम से विख्यात है।
- भिक्षुओं के निवास के लिये चट्टान तराश कर कमरे बनाए गए और। इस प्रकार गया की बराबर की पहाड़ियों और पश्चिम भारत में नासिक के आस-पास की पहाड़ियों में गुहा-वास्तुशिल्प का आरम्भ हुआ।।
बुद्ध के जीवन की चार महत्त्वपूर्ण घटनाओं और उनसे संबद्ध चारों स्थानों
घटनाएँ | स्थान |
जन्म | लुम्बिनी |
ज्ञानप्राप्ति | बोधगया |
प्रथम प्रवचन | सारनाथ |
निर्वाण | कुशीनगर |
- गौड़ देश के शिवभक्त राजा शशांक ने बोधगया में उस बोधिवृक्ष को काट डाला जिसके नीचे बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था।
- ब्राह्मण शासक पुष्यमित्र शुंग ने बौद्धों को सताया था।
- शैव संप्रदाय के हूण राजा मिहिरकुल ने सैकड़ों बौद्धों को मौत के घाट उतारा था।
- सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को ग्रहण किया तथा इस धर्म को दूसरे । देशों में फैलाया और इसे विश्व धर्म का रूप दिया।
बौद्ध धर्म के संदर्भ में
- सम्राट अशोक ने बुद्ध के निर्वाण के दो सौ साल बाद बौद्ध धर्म ग्रहण किया। अशोक ने अपने धर्मदूतों के द्वारा इस धर्म को मध्य एशिया, पश्चिम एशिया, श्रीलंका, बर्मा, तिब्बत तथा चीन और जापान के भागों में फैलाया और इसे विश्व धर्म का रूप दिया।
- बौद्ध धर्म के तीन प्रमुख अंग थेः बुद्ध, संघ और धम्म। संघ के तत्त्वावधान में सुगठित प्रचार की व्यवस्था होने से बुद्ध के जीवन काल में ही बौद्ध धर्म ने तेजी से प्रगति की। मगध, कोसल और कौशाम्बी के राजाओं और अनेक गणराज्यों ने बौद्ध धर्म को अपनाया
- बौद्ध धर्म पुनर्जन्म को मानता है। बौद्ध धर्म यह भी उपदेश देता है कि जो व्यक्ति दरिद्र भिक्षुओं को भीख देगा, वह अगले जन्म में धनवान बनेगा। उल्लेखनीय है कि बौद्ध धर्म के प्रतीत्य समुत्पाद (किसी वस्तु के होने पर किसी अन्य वस्तु की उत्पत्ति) में बारह क्रम है, जिसे द्वादश निदान भी कहते हैं।
(Q) मूर्ति पूजा का आरम्भ कब से माना जाता है?
Ans.-पूर्व आर्य काल से
(Q)मोहनजोदड़ो का शाब्दिक अर्थ क्या है?
Ans.-मृतकों का टीला
(Q)सिंधु सभ्यता किससे सम्बंधित है?
Ans.-आद्य ऐतिहासिक युग (Proto-Historic Age) से
(Q) हड़प्पा सभ्यता की लिपि (Script) किस प्रकार थी?
Ans.-भावचित्रात्मक (Pictographic)
(Q)हड़प्पा सभ्यता की जानकारी का प्रमुख स्रोत क्या है?
Ans.-पुरातात्विक खुदाई
Ancient History Notes R.S Sharam Part -2
Ancient History Notes R.S Sharam Part -3